ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥22॥
ये-जो; हि-वास्तव में; संस्पर्शजा:-इन्द्रियों और विषयों के स्पर्श से उत्पन्न; भोगा:-सुख भोग; दुःख-दुःख; योनयः-का स्रोत, एव–वास्तव में; ते–वे; आदि-अन्तवन्तः-आदि और अन्तवाले; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; न कभी नहीं; तेषु–उनमें; रमते-आनन्द लेता है; बुधः-बुद्धिमान।
BG 5.22: इन्द्रिय विषयों के सम्पर्क से उत्पन्न होने वाले सुख यद्यपि सांसारिक लोगों को आनन्द प्रदान करने वाले प्रतीत होते हैं किन्तु वे वास्तव में दुःखों के कारण हैं। हे कुन्तीपुत्र! ऐसे सुखों का आदि और अंत है इसलिए ज्ञानी पुरुष इनमें आनन्द नहीं लेते।
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इन्द्रियों का विषयों से संपर्क होने पर सुख की अनुभूति होती है। मन जो छठी इन्द्रिय है वह सम्मान, प्रशंसा, और सफलता आदि में सुख का अनुभव करता है। शरीर और मन के इन सभी सुखों के भोग को लौकिक सुख के रूप में जाना जाता है। ऐसे सांसारिक सुख निम्नांकित कारणों से आत्मा को संतुष्ट नहीं कर सकते।
अर्थशास्त्र में इसे 'प्रतिफल ह्रास नियम' के रूप में परिभाषित किया गया है। जैसे-जैसे हम किसी वस्तु का निरन्तर उपयोग करते हैं वैसे वैसे उससे मिलने वाला सुख घटता रहता है। किन्तु भगवान का सुख पूर्ण संतुष्टि प्रदान करता है। यह सत्-चित्-आनन्द अर्थात् शाश्वत, चिरनूतन और दिव्य है। इस प्रकार यदि कोई भगवान का दिव्य नाम पूरा दिन जपता रहता है तब इससे उसे आध्यात्मिक संतुष्टि और सदा के लिए आनन्द की प्राप्ति होती है।
कोई भी स्वस्थ व्यक्ति स्वादिष्ट मिष्ठान का सेवन करने की इच्छा का त्याग कर मिट्टी खाने में आनन्द प्राप्त नहीं कर सकता है। समान रूप से जब कोई परम आनन्द की अनुभूति करना आरम्भ कर देता है तब मन भौतिक वस्तुओं से प्राप्त होने वाले आनंद को भुला देता है। वे जो उचित और अनुचित के विवेक से युक्त हो जाते हैं वे उपर्युक्त लौकिक सुखों की तीनों कमियों को समझ जाते हैं और अपनी इन्द्रियों को उस ओर आकर्षित होने से रोकते हैं।
श्रीकृष्ण अगले श्लोक में इस पर प्रकाश डालेंगे-